एकात्मकता का अनूठा तथा अन्नदान का महापर्व-छेरछेरा [भाग - II]


छत्तीसगढ़िया संस्कृति ने सदैव ही जीवन के प्रति अगाध श्रद्धा और प्रेम सह अनुराग का पाठ पढ़ाया है यही कारण है कि अनेक घात, प्रतिघातों के बावजूद भी छत्तीसगढ़िया सांस्कृतिक प्रवाह निरंतर अबाध गति से प्रवाहित होता रहा है। जीवन के प्रति हमारी यही आस्था हमारे उत्सवों, त्यौहारों, पर्वों को उसी हर्ष और उत्साह के साथ मनाने की प्रेरणा देती है ।

जहाँ एक ओर त्यौहारों-पर्वों से हमें अपनी संस्कृति, सभ्यता का परिचय मिलता है, वहीँ दूसरी ओर आचार, विचार, लोक व्यवहार तथा रीति-रिवाजों की भी जानकारी मिलती है, त्यौहार तथा पर्वों को यदि हम लोक संस्कृति प्रधान छत्तीसगढ़ के संदर्भ में देखें तो यहाँ के जन-जीवन में तीज-त्यौहारों,उत्सव-पर्वों, तथा मेले, मडइयों का एक विशिष्ट स्थान दिखता है ।

धान का कटोरा नहीं, धान की माई कोठी है, यहाँ के मेहनतकश किसान मजदूरों के लिए धान केवल भरण, पोषण या जीवन यापन के एकमात्र माध्यम के रूप में न होकर, अन्नमाता अन्नपूर्णा के रूप में प्रतिष्ठित सर्वाधिक पूजा उपासना का भी पात्र है ।

छत्तीसगढ़ संस्कृति और परम्पराओं की महकती बगिया है । जहाँ विभिन्नपर्वों तथा उत्सवों को मनाने की प्रक्रिया में छत्तीसगढ़ का अपना मौलिक रूपहोता है । वैसे तो छत्तीसगढ़ में पुरातत्व लोक पर्वों और रीति रिवाजों की समृद्ध परम्परा है, जो ना जाने कितने वर्षों से चित्रोत्पला गंगा महानदी की पावन धारा के साथ प्रवाह मान है, परन्तु कई लोकपर्व लोक कला की भांति जन उदासीनता तथा संरक्ष्ण के आभाव एवं आधुन्किकता के प्रभाव में लुप्त होते जा रहा हैं ।

छत्तीसगढ़ उत्सवधर्मिता से जुड़े कृषि गत लोकपर्वों के माध्यम सेसामाजिक समरसता को सुदृढ़ करने के लिए आदिकाल से संकल्पित रहा है।

छत्तीसगढ़ में छेरछेरा पर्व
छत्तीसगढ़ में अन्नदान की परम्परा के रूप में मनाये जाने वाले इस पर्व की शुभारम्भ कब हुई, यह कहना मुश्किल है , छेरछेरा का त्यौहार छत्तीसगढ़वासियों की सहन दान शीलता को अभिव्यक्त करता है ।

जब समूचे छत्तीसगढ़ में युवा बालवृन्दों का दल छेरछेरा माई कोठी केधान ला हेरहेरा, की पंक्तियों के उदघोष के साथ घर के चौखट पर धमकती है,तो वे याद दिलाते है अपने अधिकार, सहकार और सामजिक सद्भाव का । किसी को खाली हाथ नहीं लौटाया जाता । जोड़ियों या समूहों में दान मांगते युवा, कीर्तन करती मंडलियाँ, नाचा नौटंकी आने वाले नचनिया धार्मिक झाकियां निकलते ग्रामीण जन ग्रामीणों द्वारा अर्पण किये गये धान का एकत्रण करते है ।

घर-घर से धन मांगने की इस परम्परा को ‘छेरछेरा मांगना या छेरछेरा कूटना’ कहते है । छेरछेरा का त्यौहार मुख्यतः ग्रामीण अंचल का त्यौहार है, जो माघ माह के पूर्णिमा को मनाया जाता है । फसल प्राप्ति की प्रसन्नता में विश्व के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए पूजा पाठ के साथ किसान छेरछेरा के पर्व पर समूचे गाँव का धान का दान करते है , ताकि अवकाश के समय में किसी की जेब खाली ना हो ।

इस त्यौहार को नमने के लिए ना ही किसी विकृषि अनुदान या कर्मकांड की आवश्यकता है, और न ही नए वस्त्रों परिधानों की अपेक्षा छेरछेरा के अवसर पर अनेक मेले मड़ई का आयोजन भी होता है । तुरतुरिया मेला तथा विखोनी महासमुंद का चेकी मेला माघ पूर्णिमा में लगने वाले प्रमुख मेले है ।

छत्तीसगढ़ की उदात्त परम्परा का ध्वजावाहक छेरछेरा बेमिसाल है । 2012 से छेरछेरा के त्यौहार पर राज्य शासन ने अवकाश घोषित किया है ।

छेरछेरा का बौद्ध धर्म सम्बन्ध – छत्तीसगढ़ संस्कृति की अध्येता डॉ. अनिल भातपहरी जी से बौद्ध धर्म और छेरछेरा की संयुक्ता का एक नया संदर्भ मिलता है, जिनके अनुसार बौद्ध धर्म की महायान आरम्भ व महापर्व श्रेया: श्रेया: का अपभ्रंश ही छेरछेरा हो गया । माना जाता है कि जब सिद्धार्थ ने बौद्ध की प्राप्ति के पश्चात पौष पूर्णिमा को भिक्षाटन करते हुए दान ग्रहण किया, तो उसके फलस्वरुप दाता को उन्होंने श्रेया: श्रेया: कहकर मंगलकामनाएं दी, जो कालांतर में छेरछेरा हो गयी, उनकी इसी स्मृति मे पिछले 2500 सालो से यह महापर्व मनाया जाता रहा है । जहाँ दान लेने और देने दोनों को ही परस्पर मंगलकामनाएं दी जाती है । आज भी सिरपुर के इर्दगिर्द बसे लोग इन मठों की प्रस्तर प्रतिमाओं में कच्चा चावल समर्पित कर अपनी दानवृत्ति प्रदर्शित करते है ।ज्ञातव्य है कि दक्षिण कौशल की राजधानी सिरपुर महायान शाखा की प्रमुख शाखा थी ।

छेरछेरा और राजा कल्याण साय की कहानी – छत्तीसगढ़ समाज अपनी मातृ के प्रति सदैव कृतज्ञ रहा है । वह हरेली अमावश्या से लेकर छेरछेरा तक प्राप्ति को समाज को लौटाने के भाव में रहता है, छेरछेरा में कुछ हिस्सा देने का भाव होता है, जो सहअस्तित्व और सामूहिकता पर बल देता है, छेरछेरा की परम्परा त्यौहार के रूप में बहुत पहले से चला आ रहा है । इसे लेकर छत्तीसगढ़ के राजा कल्याण साथ ही कथा बहुप्रचलित ही । इस कथा के अनुसार जब कलचुरी राजाकल्याण साय, दिल्ली में अकबर (जहांगीर) के दरबार से वर्षा के पश्चात वापस आये, तो इनके स्वागत में अल्हादित जनता को, रानी फुलकैना ने अनाज और उपहार स्वरुप सोनें/चांदी बांटे । राजा कल्याण साय के बाद राज्य स्तर पर छेरछेरा मनाने की परम्परा मराठा शासक बिम्बाजी भोसले ने डाली, जो आज तक चल रही है यहाँ यह जानना जरुरी है कि इस प्रभावी मराठा शासक की उपाधि समाधि महासमुंद जिले के नर्रा गाँव में स्थित है ।

छेरछेरा और भगवान शिव की कथा – पौष पूर्णिमा को मनाया जाने वाला छेरछेरा के त्यौहार के साथ एक पौराणिक कथा भी जुड़ी है, जिसके बाद माँ पार्वती अन्नपूर्णा और भगवान शिव भोला भंडारी के नाम से जाने जाने लगे, पार्वती से विवाह के पूर्व शिव जी ने उनकी कई प्रकार से परीक्षाएं ली थी, जिनमेसे एक में वे नट बनकर माता पार्वती से हार गए और भिक्षाटन की, ताकि माता पार्वती इनसे विवाह के लिए इंकार कर दे । छत्तीसगढ़ में जो छेरछेरा का पर्व मनाया जाता है उसमें लोग नट का स्वांग धरकर जाया करते थे । हालांकि मध्य

भागों में यह प्रथा कम हो गई है, लेकिन आज भी बस्तर के क्षेत्र में यह प्रथा बहुतायत में देखने को मिल जाती है, वहां बिन नट बने कोई व्यक्ति भिक्षाटन नहीं करता, परन्तु समय के साथ यह परम्परा भी धीरे धीरे क्षीण होती जा रही है ।

छेरछेरा और माँ शाकम्भरी से जुडी कहानी – छत्तीसगढ़ की अर्थव्यवस्था कृषि की धुरी पर घुमती है । दिन रात कार्यरत रहकर चराचर समस्त जीवों को जीवनदान देने वाला किसान मौन साधक होता है । किसान को परम संतुष्टि का अनुभव तब होता है, जब वह समारोह पूर्वक अपनी फसल का चावल का कुछ अंश दान करता है, और दान की इस परम्परा का महायज्ञ है, छेरछेरा । छेरछेरा के दिन ही, शाकम्भरी देवी की जयंती मनाई जाती है, इसकी लोक सभ्यता है कि प्राचीन काल में छत्तीसगढ़ में सर्वत्र घोर अकाल पड़ने के कारण हाहाकार मच गया था । दुखी जनों की पूजा प्रार्थन से प्रसन्न होकर अन्न फल शाक और औषधि की देवी शाकम्भरी प्रकट हुई और इन्होने अकाल को सकाल में बदल दिया ।शाकम्भरी देवी की श्रद्धा में छेरछेरा पर्व मनाया जाने लगा ।

बस्तर में छेरछेरा का अलग स्वरुप – बस्तर में आदिवासी परम्परा में छेरछेरा की अलग ही कहानी है । बस्तर संभाग के अनुसूचित जनजाति समुदाय में छेरछेरा तिहर नहीं, बल्कि पुरखों के शक्ति दिवस के रूप में मनाया जाता है । सामुदायिक गहमियता से मरनी नेंग हेतु प्राप्त धान्य का सुविधानुसार गाँव के बाहर जाकर ग्रहण किया जाता है ।

छेरछेरा से प्राप्त विभिन्न किसमों के धान को बिजहा के रूप में सुरक्षित रखा जाता है । अगले साल उससे जो फसल उपजती है, वह क्रास पॉलिनेशन के कारण अधिक अन्न किस्म भी होती है, इसे देशी जेनेटिक इंजिनियरींग का नाम दिया जा सकता है , यही कारण है कि छत्तीसगढ़ में धान की सर्वाधिक किसमों का भंडार है ।

छेरछेरा का महत्व

छत्तीसगढ़ का लोक जीवन प्राचीन का से ही, दान परम्परा का पोषक रहा है, कृषि यहाँ का जीवनधार है, और धान्य मूल फसल । किसान धान को बोने से लेकर, कटाई और मिसाई के बाद कोठी में रखने तक दान परम्परा का निर्वाह करता है ।

1. उदारता की भावना का उहेलन सर्वत्र समभाव के सम्राज्य का निर्माण अहंकार का परिष्कार, परिमाण के स्थान पर प्रेम की महत्ता वाला दान होना छेरछेरा के महत्व को स्वतः ही सिद्ध करता है।
2. छेरछेरा में अभिजात्य और अन्त्यज सभी वर्ग के वधो की समान भागीदारी सुनिश्चित रहती है।
3. छत्तीसगढ़ संस्कृति के जानकार पुनाऊराम जादू बताते है छेरी, छः अरी शब्द से मिलकर बना है। मनुष्य के छः शत्रु है- काम, क्रोध लोक हित तृष्णा और अहंकार । छेरछेरा इन मनुष्य के इन छः शत्रुओं के नाश का पर्व है।
4. छत्तीसगढ़ के उत्सवधर्मिता से जुड़ा यह लोकपर्व छत्तीसगढ़ की कृषि प्रधान संस्कृति में दानशीलता की परम्परा को याद दिलाता है।
5. प्राचीन कल में गणतंत्र में लोकतंत्र का दर्शन कराने वाला यह पर्व, अपने आप में अद्वितीय स्थान रखता है । समाज को स्वेच्छानुसार के रूप में थोड़ा अनाज ग्राम्य जीवन में लोक कल्याण के प्राप्त करने की स्वीकृति है, जो सामाजिक अभिन्न समानता का धोतक भी है ।
6. छेरछेरा किसानों के उन्नरण होने का भी त्यौहार है, इस दिन को किसान द्वारा लिए गये उधारी बाढ़ी को भी वापस करने के लिए जाना जाता है ।
7. छेरछेरा का पर्व नैतिक शिक्षा देने का भी महापर्व है । जहाँ महिलाएं हर याचक की झोली में अनाज डालती है, वहीँ हर पुरुष याचक की भूमिका मेंप्रस्तुत होता है,ऐसी नैतिक शिक्षा का आदर्श शायद ही कहीं और दिखाई दे।
8. महादान और फसल स्वरुप के रूप में मनाया जाने वाला यह त्यौहार छत्तीसगढ़ की सामजिक समरसता समृद्ध दानशीलता का गौरवशाली परम्परा का संवाहक है।
9. छेरछेरा पर्व में, आध्यात्मिक संस्कार तथा संस्कृति के समलभ करें कर्म करें, धर्म से आगे रखा गया है । दान की महत्ता को उसके निष्पादन और सार्वभौमिकता से जनसमुदाय में स्वीकार योग्य बनाया है।
10. सहकारिता की भावना को पृष्ट करता यह पर्व भौमिकनादी, स्वार्थ तथा शक्तिपूर्ण पूंजीवादी व्यवस्था से पीड़ित लोगों में सहकारता संदेशवाहक


 By: Komal Sahu

Competition Community




Competition Community [CoCo]


Useful Links: 

CGPSC Pre Analysis 2023

Free Study

Exam Alerts

Comments