हिन्‍दी का महत्‍व व उसके प्रयोक्‍ता

 


हिन्‍दी का महत्‍व व उसके प्रयोक्‍ता

कोस-कोस के बदले पानी चार कोस में वाणी।

                जी हॉं! यह कहावत हमारी भाषा हेतू बिल्‍कुल चरितार्थ होती है। जिस तरह नदी की प्रवाहमान धारा अपने साथ जलकणों तथा अपशिष्‍टों को साथ लेकर बहती है, उसी तरह भाषा अपने साथ बोलियाँ तथा उपबोलियॉं को लेकर व्‍यवह्रत होती है। हालॉंकि इनमें से कुछ बोलियॉं अपनी क्षेत्रीय सीमा दायरे को लांघकर साहित्‍य जगत में कदम रखकर “विभाषा या उपभाषा” का तमगा प्राप्‍त कर लेती है और भाषा भी उन्‍हें अपनी सहचरी तथा भगिनी की तरह सहर्ष आलिंगन करती हुई स्‍वीकार कर लेती है।

 यह मात्र भाषा नहीं है यह माध्‍यम है प्रत्‍येक मनुष्‍य के मनोभावों को एक दूसरे तक साझा करने का जिसकी इसी खूबी की वजह से मानव ने पशु से खुद की पृथक पहचान बनायी है। परन्‍तु आज की गतिविध‍ियॉं भाषा के अस्तित्‍व पर एक अनचाहा सवाल खड़ा करती हैं। हम हिन्‍दी भाषी होकर भी इसके वास्‍तविक महत्‍व को समझ नहीं पाते। इसके प्रयोक्‍ता अब विरले ही मिलते हैं हर स्‍थान व कार्य पर आज द्वितीय राजभाषा अंग्रेजी की प्राथमिकता इसके अस्तित्‍व पर इससे ज्‍यादा प्रभावी जान पड़ने लगी है। जिस हिन्‍दी को “संवैधानिक दर्जा” दिलाने तथा राजभाषा से राष्‍ट्रभाषा का गौरव प्रदान करवाने हेतू धार्मिक, साहित्यिक, राजनैतिक महापुरूषों का योगदान रहा उस पर आज आधुनिकता की चादर चढ़ चुकी है। उसके बढ़ते कदम में हिन्‍दी कहीं पीछे छुटने लगी है। यह बहुत अच्‍छी बात है, कि विकास परंपरा तथा आधुनिक नवीनतम तत्‍वों की प्राप्ति करने की चाहत हर किसी में होती है बशर्ते अपने गौरव व अतीत की अस्मिता को बिना भूले आगे बढ़ा जाए इसमें कोई दो राय नहीं है।

                भाषा हमें बहुत कुछ सिखाती है खासकर हमारी हिंदी भाषा इसकी विशेषता इसकी एक बिंदी तथा मात्रा में ही नहीं है, बल्कि इसकी वैज्ञ‍ानिक पद्धति द्वारा प्रमाणित उच्चारण व प्रयोग में भी है। इसकी खूबसूरती ना केवल भाषिक ध्‍वनि सौन्‍दर्य में है, बल्कि इसके साहित्यिक प्रयोग में झलकती हैं। कहा जाता है यदि किसी मनुष्‍य के सामाजिक, धार्मिक परिवेश को जानना है तो उसकी पहचान उसके साहित्‍य से होती है। चाहे वह साहित्‍य मौखिक हो या लिखित। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का कथन है साहित्‍य समाज का दर्पण है। यह वाक्‍य साहित्‍य में चरितार्थ होती है।

                हिन्‍दी भाषा का साहित्यिक रूप बहुत विशालकाय है। काव्‍य के दो पक्ष दृश्‍य काव्‍य तथा श्रव्‍य काव्‍य है जिसके साहित्‍यिक रचना के दो पक्ष गद्याात्‍मक” तथा पद्यात्‍मक शैली की रचना इसकी प्रमाणिकता सिद्ध करती है। जिस स्‍वरूप में आज यह हमको प्राप्‍त हुई है। वह बोली तथा भाषा की बदौलत ही है। मध्‍यकालीन अपभ्रंश की “अवधी”ब्रज तथा “राजस्‍थानी” बोली प्रांतीय स्‍तर पर प्रयुक्‍त होने वाली महज बोलियॉं ही तो थीं, परन्‍तु लिखित रूप धारण कर साहित्यिक स्‍तर पर प्रयोग होकर क्षेत्रीय विस्‍तार करती हुई आज साहित्‍य की सबसे बड़ी साहित्यिक भाषा बनी। मध्‍यकालीन परिवेश में खुद को बांधकर भक्तिपूर्ण रचनाओं तथा वीरता के समावेश वाली भाषा बन प्रचारित हुई। 14वीं शताब्‍दी में प्रथम प्रयोगकर्ता स्‍वरूप खुसरो द्वारा कहमुकरियॉं व पहेली के हेतु प्रयुक्‍त होने वाली खड़ी बोली आधुनिकता के परिवेश में प्रारंभिक हिन्‍दी से स्‍वतंत्रता तक प्रयोग होकर आज राजभाषा से ऊपर उठकर राष्‍ट्रभाषा बन राष्‍ट्रीयता व अंतर्राष्‍ट्रीयता की परिचायक हो गई है।  

                इस हिन्‍दी की खासियत यह है, कि यह हमेशा अपने साथ बोली तथा देशज-विदेशज सभी शब्‍दों को आत्‍मसात करती है। इसका प्रमाण तमाम प्रशासनिक शब्‍दों, विषयगत पुस्‍तकों, लेखों, समाचार पत्रों सभी में परिलक्षित होती है। जिस पर भाषा परिवार का विकासक्रम भी साफ झलकता है। संस्‍कृत के तत्‍सम रूप, तद्भव के रूप में हिन्‍दी, साथ ही देशज-विदेशज, संकर शब्‍दों का प्रचलन ना केवल किताबी बल्कि साधारण बोलचाल में भी दिखाई देता है। इसकी यही विशेषता इसे मानकीकृत कर मानक भाषा स्‍वरूप अपने प्रयोक्‍ताओं के सिवा दूसरे हेतु ग्राह्य बना चुकी है। यह विश्‍व की “तीसरी सबसे बड़ी भाषा” है, जो ना केवल भारत बल्कि विदेशों में भी बड़ी सहजता से सहर्ष प्रयोग की जाती है। देवभूमि, कला-संस्‍कृति, रीति-रिवाज तथा भारतीय संस्‍कृति की परिचायक हिन्‍दी जिसकी लिपि में भी देव है अर्थात् “देवनागरी”। संस्‍कृत साहित्‍य से हिन्‍दी साहित्‍य तक तथा इसे राजनैतिक सामाजिक इकाई तक पहुंचाने का श्रेय यहॉं के साहित्‍यकारों तथा राजनैतिक महापुरूषों को जाता है। जिसके परिणामस्‍वरूप यह आज राष्‍ट्र भाषा के रूप में गौरान्वित है।

                इसका व्‍याकरण सरल है जो इसे समझने व प्रयोग करने में मदद करता है। जिसके वजह से भारतीय प्रयोक्‍ताओं के अलावा दूसरे भाषा वाले भी इसे सीखना व प्रयोग करना चाहते हैं। इसके करण ना केवल भाषा में है, बल्कि साहित्यिक प्रयोग में भी कुछ नियमावली है जैसे वह नियम है मात्रा तथा वर्ण का छन्‍द में, वर्ण तथा शब्‍द का अर्थ वाला अलंकार में साथ ही मनोभावों का अनुभव कराने वाले रस में।  

                आचार्यो तथा साहित्‍यकारों ने इन सभी का बखूबी ध्‍यान रखते हुए साहित्यिक रचनाओं द्वारा अपने अनुभव तथा कल्‍पनाओं को हमसे साझा किया है। संस्‍कृत आचार्यो से शुरू हुई यह साहित्यिक प्रयोग आधुनिकता के परिवेश का नवीन रूप धारण करती हुई आज हम तक पहँची है। इसने अन्‍य साहित्यिक रचनाओं से खुद को प्रभावित भी किया और एक अनुवादक की तरह लोगों तक उसे पहुँचाने का यह माध्‍यम भी बना। सरल साधारण प्रयोग वाली इस हिन्‍दी में क्षेत्रीयता से प्रभावित देशज शब्‍दों की तरह बोली के शब्‍द का प्रयोग भी सहजता से प्रचलन में दिखाई देते हैं। सामाजिक व ऑंचलित रूप से प्रयोग होने वाली “लोकोक्तियॉं व मुहावरें” इन्‍होनें भी साहित्‍य में अपना स्‍थान बना लिया है।

                इन सभी खूबियों व महत्‍व के मद्देनजर राजभाषा का संवैधानिक दर्जा प्राप्‍त होने की खुशी आज जगजाहिर है। 14 सितम्‍बर को भारत में हिन्‍दी दिवस तो मनाया ही जाता है साथ ही अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर पर 10 जनवरी को विश्‍व हिन्‍दी दिवस भी मनाया जाता है।

                परन्‍तु आधुनिकता के परिवेश में बढ़ते हुए हम ना जाने कब हिन्‍दी से दूर हो गए हैं। जिस प्रकार हम अपने जनक व जननी तथा पारिवारिक रिश्‍तों को हमेशा जिम्‍मेदारी के साथ लेकर चलते हैं, उसी प्रकार हिन्‍दी भाषा के अस्तित्‍व को बनाये रखने हेतू इसके प्रति अपनी जिम्‍मेदारी को समझते हुए और इसके विकास प्रचार व प्रसार में अपना योगदान देना होगा। यह केवल 14 सितम्‍बर या 10 जनवरी की बात नहीं है। इसके लिए हमें प्रतिदिन, प्रतिपल, प्रतिक्षण राष्‍ट्रभाषा हिन्‍दी की अस्मिता हेतू प्रतिबद्ध होना होगा।

जरा सोचिये ना! इस हिन्‍दी की खूबसूरती को जिसकी आदि जननी आर्यभाषा संस्‍कृत है अर्थात् इसमें संस्‍कृत की है संस्‍कृति, पालि प्राकृत की प्रकृति अपभ्रंश की आंचलिकता”। यदि एक बिंदी हिंदी वर्ण के माथे पर लगे तो चंद्रशेखर स्‍वरूप शिरोधार्य व गरिमामय प्रभाव है, पैर पर लगे तो वर्णाक्षर भिन्‍नार्थ है, वर्ण के बगल में लग अनुनासिक्‍य प्रभाव है। और क्‍या ही कहूँ? इसकी खूबी वर्णों के संयुक्तिकरण से शब्‍द उसके भी पर्याय, विलोम, एकार्थी, अनेकार्थी जैसे प्रकार हैं। संधि, समास, उपसर्ग-प्रत्‍यय के प्रयोग से शब्‍द का निर्माण है। बनते जिससे विकारी व अविकारी शब्‍द विचार है।

इन्‍हीं शब्‍दों का प्रयोग कर मनुष्‍य इन्‍हें व्‍याकरणिक नियमों से बांध कर वाक्‍य निर्माण कर अपने मनोभावों को लिखित व मौखिक माध्‍यम से अभिव्‍यक्‍त कर संपर्क करता है। परन्‍तु आज यह अपने प्रयोक्‍ताओं की कमी अवश्‍य महसूस करती है। यहॉं ना केवल प्रयोक्‍ताओं में कमी है बल्कि विषयगत भी उदासीनता देखने को मिलती है। इतना ही नहीं मेरे स्‍वयं के अनुभवों में से एक आज की युवा पीढ़ी में इसके प्रति बढ़ती उदासीनता मुझे देखने को मिली है। खासकर परीक्षार्थीयों के मध्‍य। भलिभॉंति यह जानते हुए कि प्रत्‍येक विषय की अपनी प्राथमिकता है परंतु उनके द्वारा भाषा को हमेशा ही दर किनार कर दिया जाता है। हर परीक्षा में भाषा अपना महत्‍वपूर्ण स्थान रखती है परन्‍तु इस विषय की प्रति उनकी उदासीनता उनके प्रगति के पथ पर बााधक बन जाती है। मेरी बात या विचार मेरे अनुभव को अन्‍यथा न लेते हुए इस पर विचार अवश्‍य करें कि हमारी कमी कहॉं हो रही है। विचार अवश्‍य करें, क्‍योंकि अब यह विचारणीय विषय बन चु‍का है।

                तो आइए! इस हिन्‍दी पर गर्व करते हुए इसके बहुप्रयोगकर्ता बनकर इसे गौरव पथ में आगे बढ़ाते हुए पथप्रदर्शक की भांति इसे उच्‍च शिखर पर पहुँचाने में इसकी सहायता पूरी निष्‍ठा व जिम्‍मेदारी के साथ करें। यह भारतवर्ष जो हिन्‍दुराष्‍ट्र कहलाता है भाषा जिसकी हिंदी है। आइए सभी इसके प्रचार-प्रसार व प्रयोग पर अपनी कर्तव्‍यनिष्‍ठता का निर्वाह करते हुए इसके महत्‍व को समझकर इसके प्रति बढ़ रही उदासीनता को खत्‍म करें और गर्व से कहें हां! मै हिन्‍दी बोलता हूँ, और मुझे मेरे हिन्‍दी भाषी होने पर गर्व है। 



 By: Annu Roy

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