संविधान – एक जीवंत दस्तावेज

 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज

एक जीवंत दस्तावेज अर्थ है कि लगभग एक जीवितप्राणी की तरह यह दस्तावेज समय-समय पर पैदा होने वाली परिस्थितियों के अनुरूप कार्य करता है। जीवित प्राणी की तरह ही यह अनुभव से सीखता है।

क्या संविधान अपरिवर्तनीय  होते है –
             सोवियत संघ में 4 बार संविधान बदला गया। 1993 से एक नया संविधान अंगीकार किया गया। फ़्रांस में 200 वर्षों में 5 बार संविधान बदला गया। 1958  में नए संविधान के साथ 5वें गणतन्त्र की स्थापना की गयी। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि हमें एक मजबूत संविधान विरासत में मिला। हमारे संविधान निर्माता बेहद दूरदर्शी थे। उन्होंने भविष्य के कई प्रश्नों का समाधान उसी समय कर लिया था।

हमारा संविधान इतने दिनों तक कैसे काम करता रहा –
1. हमारा संविधान इस बात को स्वीकार करता चलता है कि समय और परिस्थिति के अनुसार संविधान में संशोधन किये जा सकते है। 
2. हमारा संविधान लचीला है। अदालती फैसले और राजनीतिक व्यवहार दोनों ने संविधान के अमल में अपनी परिपक्वता और लचीलेपन का परिचय दिया है।
    इन्ही कारणों से हमारा संविधान कानूनों की एक बंद और जड़ किताब न बन कर एक जीवंत दस्तावेज के रूप में विकसित हो सका है। इस प्रकार हमारा संविधान भविष्य में पैदा होने वाली चुनौतियों का समाधान प्रस्तुत करने सक्षम है। संविधान निर्माताओं ने संविधान को सामान्य कानून से ऊंचा दर्जा दिया, ताकि आने वाली पीढियां इसे सम्मान की दृष्टि से देखें।

संविधान में इतने संशोधन क्यों हुए हैं ?
           1970 से 1990 के दौरान बड़े स्तर पर संविधान संशोधन हुए । 1974 से 1976 के दौरान 10 संशोधन हुए । इस समय कांग्रेस केंद्र में और अधिकतर राज्यों में बहुमत में थी। 2001 से 2003 के दौरान 10 संशोधन हुए। इस समय केन्द्र में भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) सत्ता में था, और विपक्षी दलों का भाजपा के साथ गहरा विरोध था। इस प्रकार ये संशोधन सत्ताधारी पार्टी के बहुमत पर ही निर्भर नहीं करते।

संशोधनों की विषयवस्तु – संशोधनों को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है - 

प्रथम श्रेणी:
– इस श्रेणी के संविधान संशोधन तकनीकी या प्रशासनिक प्रकृति के थे जो अधिकतर संविधान के मूल उपबंधों को स्पष्ट बनाने, उनकी व्याख्या करने तथा छिटपुट संशोधन से संबंधित थे। 
उदा. – उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु सीमा 60 वर्ष से बढ़ा कर 62 वर्ष करना, वेतन में बढ़ोतरी, अनुसूचित जनजाति/ अनुसूचित जाति के लोकसभा में सीटों के आरक्षण को 10-10 वर्ष बढ़ाते जाना।
– संसदीय व्यवस्था में राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह पर काम करता है । 42वें और 44 वें संशोधन द्वारा संवैधानिक उपबंधों की व्याख्या भर की गई है।

द्वितीय श्रेणी:
– संविधान की व्याख्या को लेकर न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच अक्सर मतभेद पैदा होते है जिसके कारण भी अनेक संशोधन हुए है।
– 1970-75 के दौरान ऐसी अनेक परिस्थितियां पैदा हुई जब संसद ने न्यायपालिका कि प्रतिकूल व्याख्या को निरस्त करते हुये बार – बार संशोधन किये। 
जैसे – गोलकनाथ वाद के बाद 24 वां संविधान संशोधन और केशवानंद भारती वाद के बाद 38वां, 39वां और 42वां संविधान संशोधन लाया गया। 


– इस काल के संविधान संशोधनों को इस समय के राजनीतिक घटनाक्रमों के माध्यम से भी समझ सकते हैं।

तृतीय श्रेणी:
– राजनीतिक आम सहमति के माध्यम से संशोधन
– दल बदल विरोधी कानून (52 वां, 91 वां संशोधन)
– मताधिकार आयु – 21 से घटाकर 18 वर्ष – 61 वां संशोधन 
– 73 वां 74 वां संविधान संशोधन 
– कई सारे संशोधन काफी विवादस्पद रहे। 1971-76 के काल के संशोधनों को संदेह की दृष्टि से देख गया। विपक्षी दलों का आरोप था कि सत्तारूढ़ दल इन संशोधनों के माध्यम से संविधान के मूल स्वरूप को बिगड़ना चाहता है। 38 वां, 39 वां, 42 वां संशोधन विशेष रूप से विवादास्पद रहे। 
– 42वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान के एक बड़े मौलिक हिस्से को एक प्रकार से फिर से लिखा गया, ऐसा कहा गया। प्रस्तावना, 7वीं अनुसूची और 53 अनुच्छेदों में व्यापक परिवर्तन किये गये। 
– 1977 में सरकार बदली । 43वें, 44वें संशोधनों के माध्यम से 42वें संशोधन अधिकांश संशोधनों को निरस्त कर दिया गया। 
– संविधान की बुनियादी संरचना को लेकर देश की सभी संस्थाओं में सहमति पैदा हुई है।


संविधान की मूल संरचना तथा संविधान का विकास -  

मूल संरचना ने संविधान के विकास में निम्नलिखित सहयोग दिया –
1) संसद  को संविधान में संशोधन करने की शक्तियों की सीमाएं निर्धारित की गई। 
2) यह संविधान की किसी या सभी भागों में सम्पूर्ण संशोधन की अनुमति देता है। 
3) संविधान की मूल संरचना या उसके बुनियादी तत्व का उल्लंघन करने वाले किसी संशोधन के बारे में न्यायपालिका का फैसला अंतिम होगा। 

    •  मूल संरचना का सिद्धांत स्वयं में ही एक जीवंत सिद्धांत का उदाहरण है । इससे संविधान की कठोरता एवं लचीलेपन का संतुलन और मजबूत हुआ है। 
    •  सभी जीवंत संविधान बहस, तर्क-वितर्क, प्रतिस्पर्धा और व्यावहारिक राजनीतिक की प्रक्रिया से गुजरकर ही विकसित होते हैं।

संविधान की समीक्षा – 
– वेंकट चलैय्या आयोग – 2000 
– विपक्षी दलों तथा अन्य संगठनों ने इस आयोग का बहिष्कार किया। 
– आयोग ने मूल संरचना में विश्वास दर्शाया और ऐसी कोई सिफारिश नहीं की जिससे मूल संरचना को चोट पहुँचती हो ।  संविधान की समझ बदलने में न्यायिक व्याख्याओं की अहम भूमिका रही है । 
जैसे - उच्चतम न्यायालय ने निर्णय लिया आरक्षित सीटों की संख्या सीटों की कुल संख्या के 50% से अधिक नहीं होनी चाहिये, OBC आरक्षण में  क्रीमी लेयर की अवधारणा।
        इन निर्णयों को एक सिद्धांत के रूप में स्वीकार कर लिया गया। 
– न्यायालय ने अनुच्छेद  21 को अधिक व्यापकता प्रदान करते हुए जीवन के अधिकार में वो सभी अधिकार शामिल कर दिए जो एक व्यक्ति के स्वतंत्र एवं गरिमा पूर्ण जीवन के लिए आवश्यक है। 
– न्यायलय का मानना है कि किसी दस्तावेज को पढ़ते समय हमें उसके निहितार्थ पर ध्यान देना चाहिये। 

संसदीय सर्वोच्चता – 
– संसदीय शासन प्रणाली में संसदीय सर्वोच्चता होती है। 
– न्यायपालिका ने इस बात पर जोर दिया कि सारे कार्य-कलाप संवैधानिक ढांचे के अंतर्गत होने चाहिये क्योंकि जनकल्याण के नाम पर एक बार कानून के दायरे से बाहर जाने की छुट मिलने पर सत्ताधारी उसका दुरूपयोग भी कर सकते है। 
– न्यायपालिका ने केशवानन्द के मामले में संविधान की भाषा पर नहीं बल्कि उसकी आत्मा के आधार पर निर्णय दिया। 
– न्यायपालिका ने संविधान की मूल संरचना पर विशेष ध्यान दिया क्योंकि इसके बिना संविधान की कल्पना ही नहीं की जा सकती। 

– 42 वें संविधान संशोधन के द्वारा संसद की सर्वोच्चता स्थापित की गई, लेकिन मिनर्वा मिल्स वाद (1980) में उच्चतम न्यायलय ने केशवानंद भारती वाद के निर्णय को पुन: दुहराया और आज तक मूल संरचना का सिद्धांत सत्ताधारियों को संविधान की सीमाओं से बाहर जाने से रोक रखा हैं। 
– संविधान निर्माताओं ने संविधान के माध्यम से एक साझे भविष्य को तस्वीर प्रस्तुत की। नेहरू ने स्वतंत्रता के अवसर पर दिये एक प्रसिद्ध भाषण में इस सामूहिक स्वप्न को भाग्य के साथ करार बताया था। यही कारण है कि आधी सदी गुजर जाने के बाद भी  लोग संविधान का सम्मान करते हैं और उसे महत्त्व देते हैं। जनता की चेतना को निर्देशित करने वाले ये बुनियादी मूल्य आज भी उतने ही कारगर हैं। 
– राजनीति में सभी पक्षों को अपने अतिवादी विचारों और नजरिये को छोड़कर एक न्यूनतम साझी समझ विकसित करनी पड़ती है। इसके बिना लोकतांत्रिक राजनीति आगे नहीं बढ़ सकती। 
सरकार के विभिन्न अंगों के बीच सर्वोच्च होने की प्रतिद्वंद्विता चलती रहेगी लेकिन निर्णय अंतत: जनता के हाथ में ही रहता है। वस्तुत: लोकतंत्र का उद्देश्य और लोकतांत्रिक राजनीति का अंतिम लक्ष्य जनता की खुशहाली और आजादी है।

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