'राज्‍यपाल की शक्तियां एवं उनसे जुड़े विवाद'

राज्‍यपाल

राज्‍यपाल यानी किसी भी "राज्‍य का संवैधानिक मुखिया", जिस प्रकार केंद्र में राष्‍ट्रपति की भूमिका होती है, ठीक उसी प्रकार से केंद्र में राष्‍ट्रपति की भूमिका होती है, ठीक उसी प्रकार राज्‍य में राज्‍यपाल की।

हाल ही में छ.ग में आरक्षण विधेयक का मामला विवादों में घिरा हुआ है ऐेसे में राज्‍यपाल की भूमिका और राज्‍य के विधेयकों के संबंध में उनकी शक्तियां चर्चा का विषय बनी हुई है। हम इस लेख में राज्‍यपाल की विधानमंडल से संबंधित तमाम विधायी शक्तियों को समझने का प्रयास करेंगे।

दरअसल राज्‍यपाल कार्यालय के मामले में भारतीय संघीय ढांचे के तहत दोहरी भूमिका तय की गई है, ऐसे कई मामले हैं जिनका अवलोकन करने पर यह प्रतीत होता है कि राज्‍यपाल राज्‍य का संवैधानिक प्रमुख होने के साथ-साथ केन्‍द्र का प्रतिनिधि भी होता है। राष्‍ट्रपति की तर्ज पर राज्‍यपाल को भी विधायी शक्तियां प्राप्‍त है । राज्‍यपाल के पास विधानमंडल से जुड़े कई फैसले लेने का विवेकाधिकार भी प्राप्‍त है।

राज्‍यपाल की संवैधानिक शक्तियां – 

राज्‍यपाल के पास संविधान द्वारा कार्यपालिका, विधायी वित्‍तीय एवं न्‍यायिक शक्तियां प्रदान की गई है। अनुच्‍छेद 153-167 तक राज्‍य की कार्यपालिका की चर्चा है। जिसमें 153- राज्‍यपाल के पद की बात करता है । साथ ही एक व्‍यक्ति एक से अधिक राज्‍यों का राज्‍यपाल हो सकता है (यह व्‍यवस्‍था 7 वें संविधान संशोधन 1956 द्वारा जोड़ी गई ।) 

वहीं अनुच्‍छेद 174, 175, 176, 200, 201, 213 राज्‍यपाल की राज्‍य विधानमंडल से जुड़ी शक्तियों की चर्चा करते हैं।

राज्‍यपाल की महत्‍वपूर्ण विधायी शक्तियां की तहत राज्‍यपाल विधायिका का सत्र आहुत कर सकता है, सत्रावसान तथा विधानसभा को भंग (Art 174) भी कर सकता है। 

अनुच्‍छेद 200 –
- राज्‍य विधायिका के विधेयक पर राज्‍यपाल की सहमति के बारे में बात करता है ।
- राज्‍य के विधेयकों पर राज्‍यपाल की शक्तियों के तहत राज्‍यपाल चाहे तो विधेयक को – 

      1. स्‍वीकृति दे सकता है।
      2. स्‍वीकृति सुरक्षित रख सकता है।
      3. विधेयक पुनर्विचार हेतु लौटा सकता है। (धन विधेयक न हो तो)
      4. राष्‍ट्रपति के विचार हेतु सुरक्षित रख सकता है। 

- यदि किसी विधेयक को राष्‍ट्रपति के विचार हेतु सुरक्षित रख दिया गया है तब उस विधेयक पर राज्‍यपाल की भूमिका समाप्‍त हो जाती है । तथा राष्‍ट्रपति उस विधेयक पर 

      1. स्‍वीकृति दे सकते हैं।
      2. स्‍वीकृति सुरक्षित रख सकते हैं।
      3. पु‍नर्विचार हेतु लौटा सकते हैं। 

कुछ उसके अलावा राज्‍य विधानमंडल के संबंध में कुछ विशेष शक्तियों में राज्‍यपाल अपनी विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग करते हैं (Art. 163 में राज्‍य द्वारा विवेकाधीन शक्तियों के प्रयोग का जिक्र है) राज्‍यपाल को विवेकाधिकार तब और अधिक महत्‍वपूर्ण हो जाते हैं । जब चुनाव के बाद किसी की दल को स्‍पष्‍ट बहुमत न मिला हो । जहां तक संवैधानिक प्रावधानों का सवाल है, तो संविधान में नई सरकार के गठन के लिए दलों को न्‍यौता देने के लिए कोई स्‍पष्‍ट प्रावधान नहीं है यही वजह है कि अलग-अलग समय पर राज्‍यपालों ने अपने विवेक से फैसले लिए हैं । 

संसदीय व्‍यवस्‍था में विधानसभा में बहुमत दल के नेता को मुख्‍यमंत्री बनाना चाहिए पर यदि जनादेश खंडित है । कोई दल सरकार बनाने की स्थिति में हीं हे । तो राज्‍यपाल अपने विवेक से ऐसे व्‍यक्ति को मुख्‍यमंत्री बना सकते हैं जो उनके अनुसार सदन में बहुमत साबित करने की स्थिति में हो । संविधान में इस बात का जिक्र नहीं है कि मुख्‍यमंत्री अपनी नियुक्ति के पहले अपना बहुमत साबित करें । यदि किसी दल को स्‍पष्‍ट बहुमत न हो तो, चुनाव पूर्व गठबंधन के नेता को न्‍यौता देना चाहिए यदि गठबंधन नहीं हुआ है तो सबसे बड़े दल के रूप में उभरे दल के नेता को मुख्‍यमंत्री नियुक्‍त करना चाहिए । इनमें से कोई भी स्थिति न हो तो ऐसे में राज्‍यपाल ऐसे व्‍यक्ति को सरकार बनाने को कह सकते हैं जो उनकी नजरों में विधानसभा में बहुमत साबित करने के लायक हो । जरूरी नहीं है कि वह व्‍यक्ति विधायक ही हो  परंतु मुख्‍यमंत्री नियुक्‍त होने के 6 माह के भीतर उसे किसी भी सदन का सदस्‍य बनना अनिवार्य है । इन स्थितियों के न होने पर फिर राज्‍यपाल के सामने विधानसभा को भंग करने अथवा राष्‍ट्रपति शासन की सिफारिश के अलावा अन्‍य कोई विकल्‍प नहीं बचता है । 

संविधान निर्माताओं ने राष्‍ट्रपति एवं राज्‍यपाल को विवेकाधिकार की शक्ति कुछ खास हालातों से निपटने के लिए दी थी अक्‍सर इन अधिकारों को लेकर विवाद होते रहे हें और खासकर राज्‍यपाल के विवेकाधिकार एवं केन्‍द्र द्वारा राज्‍यपालों की नियुक्ति की परिपाटी केन्‍द्र-राज्‍य संबंधों में खटाश की मुख्‍य वजह बने हैं । 

केन्‍द्र राज्‍य संबंधों को मजबूत करने तथा राज्‍यपाल से जुड़े विवादों को दूर करने के लिए जून 1983 में सरकारिया आयोग ने कुछ सिफारिशें दी जिसमें उन्‍होंने राज्‍यपाल के पद पर गैर-राजनीतिक व्‍यक्ति को नियुक्‍त करने की सलाह दी ताकि वह निष्‍पक्ष रहकर कार्य करे साथ ही राज्‍यपाल की नियुक्ति में संबंधित राज्‍य के मुख्‍यमंत्री से परामर्श की अनुशंसा की थी । अक्‍सर राज्‍यपाल की नियुक्ति के मामलों में सरकारिया आयोग की सिफारिशों का हवाला दिया जाता हे लेकिन ये अभी तक लागू नहीं की गई । 

ऐसे में सवाल ये उठता है कि इन विवादों को कैसे सुलझाया जाए । जैसा कि हम जानते हें कि भारत एक लोकतांत्रिक देश और एक लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था का निष्‍पक्ष, पारदर्शी और कानून के अनुरूप होना बेहद आवश्‍यक है । इतना ही नहीं राज्‍य में बनने वाली भावी सरकार राज्‍य के भविष्‍य को तय करती है । इस वजह से यह महत्‍वपूर्ण हो जाता है कि राज्‍यपाल की भूमिका निष्‍पक्ष हो । 2007 में गठित पूंछी आयोग ने भी कहा कि राज्‍यपाल का कार्य एकपक्षीय या अवास्‍तविक नहीं बल्कि संतुलित होना चाहिए । यह संभव करने के लिए गैर राजनीतिक व्‍यक्ति को राज्‍यपाल चुने जाने के साथ उसे कार्यकाल की सुरक्षा भी प्रदान करनी चाहिए । (जैसे – CAG और निर्वाचन आयोग को प्राप्‍त है) इन प्रावधानों की संवैधानिक बाध्‍यता तय कर देने से राज्‍यपाल अपनी संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग स्‍वतंत्रता पूर्वक कर सकेगा साथ ही संविधान में इस बात की भी चर्चा हो कि खंडित जनादेश की स्थिति में सरकार बनाने का मौका किसे दिया जाए । समझना होगा कि इन प्रावधानों के आभाव में राजनीतिक अनाचार को बढावा मिलता है जिससे लोकतांत्रिक मूल्‍यों को कायम रख पाना मुश्किल हो जाएगा । आने वाले समय में राज्‍यपाल से जुड़े तमाम विवादों पर लगाम लगाना अनिवार्य है ताकि राजनीतिक भ्रष्‍टाचार को भी रोका जा सके।  

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