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“यह घरती मेरी माता है, और मैं इसका पुत्र हूँ । इसलिए मैं सदैव इसका सम्मान करता हूँ, और मेरी धरती माता के प्रति मई नतमस्तक हूँ ।”
विश्व के अन्य साहित्यों की भाँति हिन्दी साहित्य में प्रकृति चित्रण को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। हिन्दी साहित्य समेत सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में प्रकृति चित्रण की विशेष परम्परा रही है औरभी प्रकृति चित्रण से भरा पड़ा है।जहाँ एक ओर आदिकालीन वीरकाव्यात्मक रचनाओं में प्रकृति का वर्णन वीरकाव्य की पृष्ठभूमि के अनुरूप हुआ है, वहीं महाकाव्यात्मक कथानकों पर आधारित आधुनिक काल की रचनाओं में जनजीवन और प्रकृति का परिवर्तित होता सम्बन्ध स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।आधुनिक काल में आकर सुमित्रानंदन पंत जैसे कवियों ने तो प्रकृति को ही सर्वस्व मानते हुए यहां तक कह दिया है कि-
‘छोड़ दु्रमों की मृदु छाया,तोड़ प्रकृति से भी माया
बाले तेरे बाल जाल में कैसे उलझा दूं लोचन।’
बदले भौतिकवाद और सुविधाभोगी व्यवस्था के कारण लोगों में प्रकृति के सौदर्य और उसके प्रति आदर का भाव कम होता जा रहा है । स्वार्थवश की जाने वाली लकड़ियों की कटाई दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, जिसे नरेश अग्रवाल ने ने वृक्षों के अंतिम संस्कार की संज्ञा दी है कहते है –
मैं गुजर रहा था,
अपने चिरपरिचित मैदान से,
एकाएक चीख सुनी
जो मेरे प्रिय पेड़ की थी
लेकिन हमें यह याद रखना हॉग कि स्वयम पर हुए अत्याचार का प्रतिशोध प्रकृति अवश्य लेती है ।
कामायनी संभवतः पहली रचना है, जिसने पर्यावरण समस्या तथा असंतुलन पर विचार किया है ।
कामायनी में जयशंकर प्रसाद ने इसे बड़े सुन्दर तरीके से कहा है –
प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित हम सब भूले थे मद में
भोले थे, हाँ तिरते केवल सब विलासिता के मद में
प्रकृति माँ हैं, और माँ को सुधार करना आता है । प्रकृति के पास ध्वंस के बाद सुधार तथा पुनः नव रचना का अपना तंत्र है । प्रकृति के ध्वस को प्रकृति पुनः दुरस्त करना भली-भांति जानती है-
उषा सुनहले तीर बरसाती, जय लक्ष्मी सी उदित हुई
उधर पराजित काल रात्रि भी, जल में अंतर्निहित हुई
हिंदी साहित्य ने अपने आदिकाल से लेकर अवार्चिन काल तक की रचनाओं में प्रकृति को विशिष्ट स्थान दिया है । पर्यावरण चेतना की समृद्ध परम्परा हमारे हिंदी साहित्य में हमेशा ही रही है । रुपेश कनौजिया जी की पंक्तियाँ है –
प्रकृति तो हमेशा ही मेरी सुन्दर माँ जैसी है,
गुलाबी सुबह से माथा चूम के हँसते हुए उठाती है
भक्तिकालीन कवियां में चाहे वह सूर हो, तुलसी या कबीर, या रीतिकालीन कवि बिहारीलाल, या फिर आधुनिक काल के कवि मैथलीशरण गुप्त, सभी ने प्रकृति का सुन्दर चित्रण अपने लिखित और वाचिक साहित्य में किया है । अनुप्रास अलंकार से सजी गुप्त जी की ये 04 पंक्तियाँ –
चारू चन्द्र की चंचल किरणें,खेल रही थी, जल थल में
स्वच्छ चांदनी बिछी हुई है,अवनि और अम्बर तल में
वर्तमान में जहाँ सभी ओर पारिस्थितिकी असंतुलन होता जा रहा है, जिससे ना केवल मानव जगत बलिक जीवन और वनस्पति जगत को भी भारी खतरा है ।
कही नहीं बचे हरे वृक्ष, न सागर बचे है
अब और, किस बात के लिए रुके है
साहित्य समस्याओं को समाज के नजरिये से ढूंढने एवं समझने का काम करता है।पर्यावरण का ध्यान न रखते हुए विकास करने से क्या समस्या आती है यदि ये जानना हो तो, क्षमा शर्मा द्वारा लिखित उपन्यास ‘शस्य का पता ’ जो की बाराखंभा रोड पर हुए विकास कार्यों की वजह से गायब होते तोतों और परिंदों की बातें करता है, पठनीय है।इन्ही आलाप और विलाप को कवि दीपक कुमार कहते है-
“पास के एक गांव में भटकी एक कोयल
कूक रही है भरी दुपहरिया में
कंक्रीट की अमरैया में,
कहाँ बची है छाँव
जो इत्मिनान से तू ले सके आलाप
कोई तो अमराई बची होगी कहीं पर ...
प्रकृति और जीवन में सामंजस्य बनाकर ही हम पर्यावरण को सुरक्षित रख सकते हैं । वन्य जीवन और प्राकृतिक संपदा को बचाने से ही मावन जीवन का भी संरक्षण सुनिश्चित हो सकेगा । देश के नागरिकों की सजगता और रचनात्मक सहभागिता ही पर्यावरण समस्या का सटीक हल है ।
उठों ! मेरे साथियों, उठो ! इस दूर फैली जमीन को हरा करने का उपक्रम करें
दिशाओं में फैले साधनों का सामंजस्य करना है हमें सबके लिए ।
यदि प्रकृति का संरक्षण नहीं किया गया तो वो मानव को भी क्षति पहुँचा सकती है।प्रकृति के अभाव में सुखमय मानव जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। तुलसीदास ने रामचरितमानस के किष्किन्धा काण्ड में भी यही लिखा है कि -
"क्षिति जल पावक गगन समीरा
पंच रचित अति अधम सरीरा"
आज साहित्यकार इस दायित्व को समझ रहे हैं और अपनी रचनाओं के माध्यम से पर्यावरण चिंता को अभिव्यक्ति दे रहे हैं। जरूरत है कि पर्यावरणीय विमर्श के माध्यम से सामाजिक क्रांति लायी जानी जरूरी है..ताकि हम इस बात को पुरे गर्व से कह सकें …
माता भूमि पुत्रोहं पृथिव्या” अर्थात पृथ्वी मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूँ
By: Paritosh Jaiswal
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