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दर्शनशास्त्र या फिलॉसफी सनातन भारतीय परंपरा की रीढ़ है और यही दर्शनशास्त्र आधुनिक विज्ञान का भी मूल है। ये सिध्द करने की कोई आवश्यकता नहीं कि आधुनिक विज्ञान जिस परिपाटी पर चल रहा है वो भारत के ज्ञान-विज्ञान का मूल हजारों वर्षों से रहा है। मुगल आक्रांताओं के आने के बाद से लेकर वर्तमान समय तक हम अपने उस ज्ञान-विज्ञान और दर्शन शास्त्र से पूरी तरह कट गए। इसकी वजह थी जीवन का संघर्ष और अपनी पहचान को बचाने की जद्दोजेहद। तुलसीदास जी, स्वामी विवेकानंद, दयानंद सरस्वती आदि ने समय समय पर इस दर्शन को बचाया।
आचार्य श्रीराम शर्मा, स्वामी शरणानंद, ओशो रजनीश, जे.कृष्णमूर्ति, योगानंद परमहंस आदि जैसे कई विचारकों ने इस विचारधारा को पुनर्स्थापित करने के प्रयास किए। हालांकि भारत में ये परंपरा जन सामान्य को सुलभ थी और लोगों की जीवनचर्या का हिस्सा थी। इसकी बड़ी वजह ये थी कि हमारी मूलधारा की शिक्षा में इसका अहम स्थान था। यही वजह है कि आज आधुनिक विज्ञान के क्षेत्र में हमारे वैज्ञानिकों को विदेशों में जाकर पहचान मिली। एक समय वो भी था जब दुनिया के अन्य देशों से लोग इस दर्शन को समझने आते थे और अपने-अपने देशों में महान दार्शनिक के रूप में स्थापित होते थे। दुनिया के ज्यादातर दर्शनों में इसीलिए भारतीय पुरातन दर्शन की झलक साफ मिलती है।
इसकी सबसे महत्वपूर्ण वजह है इस दर्शन का बहुत विस्तृत होना। विज्ञान और जन सामान्य के जीवन को बेहतर बनाने के लिए शास्त्र लिखे गए तो विज्ञान और गणित के गूढ़तम रहस्यों के जवाब देने के लिए भी शास्त्र लिखे गए। सबसे महत्वपूर्ण सवाल वही था जो आज भी आधुनिक विज्ञान के लिए अबूझ है। सृष्टि की रचना क्यों और किसलिए हुई? भारतीय दर्शन इस प्रश्न का जवाब बहुत पहले दे चुका है और ऐसे ही सवालों से इस दर्शन शास्त्र का प्रादुर्भाव हुआ था। सांख्य दर्शन ने प्रकृति और पुरुष के सिध्दांत के साथ साथ कार्य कारण का सिध्दांत भी समझाया। इससे बहुत स्पष्ट हो गया कि कुछ नहीं से कुछ नहीं ही मिलता है, अर्थात् किसी भी उत्पत्ति के लिए कुछ होना आवश्यक है। जो धर्म, कुछ भी नहीं था और ईश्वर की इच्छा से जगत की उत्पत्ति हुई, की बात कहते रहे, वो विज्ञान के इस गूढ़ रहस्य को नहीं छू पाए। इसी तरह विचारकों ने अलग-अलग दर्शन लिखे।
छः दर्शन षडदर्शन का परिचय
इसमें छः दर्शन षडदर्शन के रूप में जाने जाते हैं। इस लेख में इन प्रमुख दर्शनों की सिलसिलेवार जानकारी आपके समक्ष रख रहा हूं। आगे इनमें से हर एक बारे में विस्तार से जानकारियां दी जाएंगी। पहले इन दर्शनों के भेद और मूल तत्व को समझना आवश्यक है।
भारत में प्रचलित ये छः दर्शन इस प्रकार हैं-
1. सांख्य दर्शन
2. योग दर्शन
3. न्याय दर्शन
4. वैशेषिक दर्शन
5. मीमांसा दर्शन
6. वेदान्त दर्शन
इसके अलावा चार्वाक दर्शन, बौद्ध दर्शन, जैन दर्शन जैसे अनेक दर्शन कालांतर में लोकप्रिय हुए, लेकिन ये सभी इन छः दर्शनों के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं। यही वजह है कि आज भी दर्शन शास्त्र का मूल स्त्रोत यही छः दर्शन माने जाते हैं। दरअसल, ये सभी आस्तिक दर्शन कहे जाते हैं यानी ईश्वरवादी दर्शन। हिंदू परंपरा का मूल ही ईश्वर विश्वास है। इसके बावजूद अनीश्वरवादी और भौतिकवादी दर्शनों को भी भारतीय परंपरा में स्थान मिला। यहीं सनातन परंपरा सबसे वैज्ञानक परंपरा सिध्द होती है। यहां किसी का निषेध नहीं है, लेकिन तर्क-वितर्क और उच्चतम सत्य की ही स्वीकार्यता अवश्य है।
सांख्य-दर्शन
इस दर्शन को सबसे अधिक सम्मान प्राप्त रहा क्योंकि ये सबसे गूढ़ प्रश्न का उत्तर देने में सक्षम रहा। प्रकृति-पुरुष का संबंध, कार्य-कारण का सिद्धांत, मनुष्य को मिलने वाले त्रितापों आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक के कारण और निवारण। ये बहुत ही वैज्ञानिक दर्शन है। महर्षि कपिल ने इसकी रचना की थी। बौध्द धर्म का मूल भी यही दर्शन है। कपिल मुनि के समय काल की ठीक-ठीक जानकारी नहीं मिलती लेकिन ईश्वरकृष्ण जी द्वारा रचित सांख्य कारिका से इसके बारें में जानकारियां मिल जाती हैं। ये कितना व्यापक था इसका अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि सांख्यकारिका की जो सबसे विश्वसनीय प्रति मिली वो चीनी भाषा में थी और इसकी रचना का काल 569 CE या ई.पू. बताया जाता है। सांख्य दर्शन प्रकृति से सृष्टि रचना और संहार के क्रम को विशेष रूप से मानता है। साथ ही इसमें प्रकृति के परम सूक्ष्म कारण तथा उसके सहित 24 कार्य पदाथों का स्पष्ट वर्णन किया गया है। पुरुष 25वां तत्व माना गया है,
प्रकृति का विकार नहीं है। इस प्रकार प्रकृति समस्त कार्य पदार्थों का कारण तो है, परंतु प्रकृति का कारण कोई नहीं है, क्योंकि उसकी शाश्वत सत्ता है। पुरुष चेतन तत्व है, तो प्रकृति अचेतन। पुरुष प्रकृति का भोक्ता है, जबकि प्रकृति स्वयं नहीं है।
योग-दर्शन
इस दर्शन को आमतौर पर महर्षि पतंजलि से जोड़कर देखा जाता है क्योंकि योग से जुड़ा सबसे महत्वपूर्ण कार्य उन्होंने पुष्य मित्र शृंग के काल में अष्टांग योग को पुनर्स्थापित कर किया था। इस पुनर्स्थापना शब्द पर गौर कीजिए। दर्शन परंपरा बहुत प्राचीन है लेकिन अलग- अलग काल में विद्वानों ने पूर्व में अर्जित ज्ञान को व्यवस्थित किया। यही विज्ञान की परंपरा भी है। योग दर्शन व्यवहारिक पहलू है और सांख्य दर्शन थ्योरेटिकल पहलू। कैसे मनुष्य स्वयं को पहचान सकता है। अपनी असीमित प्रज्ञाशक्ति से प्रश्नों के उत्तर पा सकता है, के व्यवहारिक पहलू को इसमें रखा गया। अष्टांग योग पूर्व में लिखे गए उपनिषदों और वैदिक ज्ञान के उन महत्वपूर्ण बिंदुओं को स्पष्टता से रखने में सफल हुआ जो संपूर्ण योग दर्शन को समझा सकते हैं। यही वजह है कि वर्तमान में योग दर्शन का श्रेय यदि महर्षि पतंजलि को दिया जाए तो गलत नहीं होगा। इसमें ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति का स्पष्ट रूप से वर्णन किया गया है। इसके अलावा योग क्या है, जीव के बंधन का कारण क्या है? चित्त की वृत्तियां कौन सी हैं? इसके नियंत्रण के क्या उपाय हैं इत्यादि यौगिक क्रियाओं का विस्तृत वर्णन किया गया है।
न्याय-दर्शन
सामाजिक व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए भौतिक पदार्थों और न्याय प्रणाली के आदर्शों की स्थापना आवश्यक है। महर्षि गौतम ने इस दर्शन शास्त्र की रचना की थी जिसमें न्याय की परिभाषा और न्याय करने की पध्दति का स्पष्ट वर्णन है। सबसे महत्वपूर्ण विषय है जय और पराजय के सिध्दांतों को समझाना जिसे बहुत व्यवहारिक तरीके से महर्षि गौतम ने इस दर्शन मे समझाया है। इस दर्शन में पदार्थों के तत्वज्ञान से मोक्ष प्राप्ति का वर्णन है। पदार्थों के तत्वज्ञान से मिथ्या ज्ञान की निवृत्ति होती है। फिर अशुभ कर्मो में प्रवृत्त न होना, मोह से मुक्ति एवं दुखों से निवृत्ति होती है। इसमें परमात्मा को सृष्टिकर्ता, निराकार, सर्वव्यापक और जीवात्मा को शरीर से अलग एवं प्रकृति को अचेतन तथा सृष्टि का उपादान कारण माना गया है और स्पष्ट रूप से त्रैतवाद का प्रतिपादन किया गया है।
वैशेषिक-दर्शन
भौतिक जगत और आज के युग में इस दर्शन का विशेष महत्व है। महर्षि कणाद इस दर्शन के रचयिता माने जाते हैं। इस दर्शन में उन्होंने धर्म को सही मायने में समझाया है। धर्म क्या है और अधर्म क्या? उसके लिए सांसारिक उन्नति की परिभाषा और उसकी प्राप्ति को समझना आवश्यक है। यह दर्शन इसे विस्तार से हमारे सामने रखता है। इसमें धर्म के अनुष्ठान पर जोर दिया गया है और ये धर्म छः प्रमुख पदार्थों से मिलकर बना है। द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय। यह दर्शन भी परमात्मा को सर्वोच्च सत्ता मानता है और मनुष्य और परमात्मा दोनों के चैतन्य होने के बावजूद परमात्मा के श्रेष्ठ होने के प्रश्न पर भी महत्वपूर्ण जानकारी देता है।
मीमांसा-दर्शन
मीमांसा सूत्र इस दर्शन का मूल ग्रन्थ है, जिसके रचयिता महर्षि जैमिनि हैं। परिवार की व्यवस्था क्या होनी चाहिए और राष्ट्र के प्रति हमारे क्या कर्तव्य हैं जैसे महत्वपूर्ण सिध्दांतों का प्रतिपादन ये महान दर्शन करता है। इस दर्शन में वैदिक यज्ञों में मंत्रों का विनियोग तथा यज्ञों की प्रक्रियाओं का वर्णन किया गया है। ये दर्शन समझना इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि राष्ट्र की उन्नति के लिए पुरातन ज्ञान कितना महत्वपूर्ण है इस बात के प्रमाण इससे हमें मिलते हैं। वैदिक अनुष्ठान और मंत्रों की परंपरा को आगे बढ़ाने पर इसीलिए जोर दिया गया है। राष्ट्र की उन्नति के परम ध्येय के लिए ये दर्शन वैदिक परंपरा को आगे बढ़ाए जाने का प्रतिपादन करता है। जिस प्रकार संपूर्ण कर्मकांड मंत्रों के विनियोग पर आधारित हैं, उसी प्रकार मीमांसा दर्शन भी मंत्रो के विनियोग और उसके विधान का समर्थन करता है। धर्म के लिए महर्षि जैमिनि ने वेद को भी परम प्रमाण माना है। उनके अनुसार यज्ञों में मंत्रों के विनियोग, श्रुति, वाक्य, प्रकरण, स्थान एवं समाख्या को मौलिक आधार माना जाता है।
वेदान्त-दर्शन
आदि शंकराचार्य ने जिस अद्वैतवाद और वेदान्त दर्शन को आगे बढ़ाया ये वही दर्शन है। पतंजलि की तरह शंकराचार्य ने भी पूर्व अर्जित ज्ञान को समायोजित किया और तत्कालीन शिक्षा पध्दति में इस दर्शन को लोकप्रिय बनाया।ये दर्शन ब्रह्म और जीव के भेद को स्पष्ट करता है। मूल रूप से इस दर्शन के जनक महर्षि व्यास माने जाते हैं। मैं पहले भी ये स्पष्ट कर चुका हूं कि व्यास कोई व्यक्ति विशेष न होकर एक परंपरा रहे हैं। कई वेद व्यास हुए और उन्होंने इस ज्ञान का सतत् संकलन और प्रचार किया। व्यास रचित ब्रह्मसूत्र को वेदान्त दर्शन का मूल ग्रंथ माना जाता है। उत्तर मीमांसा के नाम से भी इसी दर्शन को जाना जाता है।
इस दर्शन में ब्रह्म को जगत का कर्ता-धर्ता व संहारकर्ता माना जाता है। ब्रह्म ही जगत के निमित्त का कारण है। ब्रह्म सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, आनंदमय, नित्य, अनादि, अनंतादि गुण विशिष्ट शाश्वत सत्ता है। साथ ही जन्म मरण आदि क्लेशों से रहित और निराकार भी है। इस दर्शन के प्रथम सूत्र `अथातो ब्रह्म जिज्ञासा´ से ही स्पष्ट होता है कि जिसे जानने की इच्छा है, वह ब्रह्म से भिन्न है, अन्यथा स्वयं को ही जानने की इच्छा कैसे हो सकती है। सर्वविदित है कि जीवात्मा हमेशा से ही अपने दुखों से मुक्ति का उपाय करती रही है। परंतु ब्रह्म का गुण इससे भिन्न है। स्पष्टतः यदि हिंदू दर्शन शास्त्रों, खास तौर पर इन षड्दर्शनों का अध्ययन कर लिया जाए तो समस्त ज्ञान विज्ञान का सार हमें इसमें मिल जाएगा। एक बात का ध्यान रखने की आवश्यकता है जिसके बारे में ओशो रजनीश काफी कहा करते थे, यदि हम इसे ठीक तरीके से समझ नहीं पाएंगे या इसमें गहरे नहीं उतर पाएंगे तो पोंगापंथी के ही शिकार हो कर रह जाएंगे। दर्शन शास्त्र के सूत्र तो अब भी हमारे साथ हैं बस उसे समझने की प्रज्ञा शक्ति हमें विकसित करनी होगी। ये कैसे संभव है, इस प्रश्न का भी उत्तर षडदर्शन में आपको मिल जाएगा।
By: Srijan Mahant
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