भारत में समाजवाद


भारत में समाजवाद की बात करे, उससे पहले यह आवश्यक हो जाता है कि हम समाजवाद को समझे, कि आखिरकार समाजवाद होता क्या हैं? समाजवाद की शुरुआत कहा से हुई? क्योंकि ऐसे काई प्रकार के प्रश्न हम सब क मन में उठते रहते हैं;

समाजवाद (Socialism) एक आर्थिक-सामाजिक दर्शन है। समाजवादी व्यवस्था में धन-सम्पत्ति का स्वामित्व और वितरण समाज के नियन्त्रण के अधीन रहते हैं। आर्थिक, सामाजिक और वैचारिक प्रत्यय के तौर पर समाजवाद निजी सम्पत्ति पर आधारित अधिकारों का विरोध करता है। उसकी एक बुनियादी प्रतिज्ञा यह भी है कि सम्पदा का उत्पादन और वितरण समाज या राज्य के हाथों में होना चाहिए। राजनीति के आधुनिक अर्थों में समाजवाद को पूँजीवाद या मुक्त बाजार के सिद्धांत के विपरीत देखा जाता है। एक राजनीतिक विचारधारा के रूप में समाजवाद युरोप में अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में उभरे उद्योगीकरण की अन्योन्यक्रिया में विकसित हुआ है।

ब्रिटिश राजनीतिक विज्ञानी सी० ई० एम० जोड ने कभी समाजवाद को ‘एक ऐसी टोपी कहा था जिसे कोई भी अपने अनुसार पहन लेता है’। समाजवाद की विभिन्न किस्में सी० ई० एम० जोड के इस चित्रण को काफी सीमा तक रूपायित करती है। समाजवाद की एक किस्म विघटित हो चुके सोवियत संघ के सर्वसत्तावादी नियंत्रण में चरितार्थ होती है जिसमें मानवीय जीवन के हर सम्भव पहलू को राज्य के नियंत्रण में लाने का आग्रह किया गया था। उसकी दूसरी किस्म राज्य को अर्थव्यवस्था के नियमन द्वारा कल्याणकारी भूमिका निभाने का मंत्र देती है।

समाजवाद अंग्रेजी और फ्रांसीसी शब्द 'सोशलिज्म' का हिंदी रूपांतर है। 19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में इस शब्द का प्रयोग व्यक्तिवाद के विरोध में और उन विचारों के समर्थन में किया जाता था जिनका लक्ष्य समाज के आर्थिक और नैतिक आधार को बदलना था और जो जीवन में व्यक्तिगत नियंत्रण की जगह सामाजिक नियंत्रण स्थापित करना चाहते थे।

समाजवाद शब्द का प्रयोग अनेक और कभी-कभी परस्पर विरोधी प्रसंगों में किया जाता है; जैसे समूहवाद अराजकतावाद, आदिकालीन कबायली साम्यवाद, सैन्य साम्यवाद, ईसाई समाजवाद, सहकारितावाद, आदि - यहाँ तक कि नात्सी दल का भी पूरा नाम 'राष्ट्रीय समाजवादी दल' था।

समाजवाद की परिभाषा करना कठिन है। यह सिद्धांत तथा आंदोलन, दोनों ही है और यह विभिन्न ऐतिहासिक और स्थानीय परिस्थितियों में विभिन्न रूप धारण करता है। मूलत: यह वह आंदोलन है जो उत्पादन के मुख्य साधनों के समाजीकरण पर आधारित वर्गविहीन समाज स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील है और जो मजदूर वर्ग को इसका मुख्य आधार बनाता है, क्योंकि वह इस वर्ग को शोषित वर्ग मानता है जिसका ऐतिहासिक कार्य वर्गव्यवस्था का अंत करना है।

तो अभी आप ने संक्षिप्त में समाजवाद के बारे में जाना, अब आइये भारत में समाजवाद के प्रस्फुटन के कारण और वर्तमान में प्रासंगिकता की स्थिति के बारे में समझते हैं, भारत में समाजवाद की एक अलग किस्म के सूत्रीकरण की कोशिश की गयी।

रूस में अक्टूबर क्रांति के बाद भारत में छोटे समाजवादी क्रांतिकारी समूह उभरे। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना 1921 में हुई थी, लेकिन विचारधारा के रूप में समाजवाद ने राष्ट्रवादी नेताओं जैसे जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस द्वारा अनुमोदित होने के बाद राष्ट्रव्यापी अपील की। कट्टरपंथी समाजवादी ब्रिटेन में पूरी तरह से भारतीय आजादी के लिए बुलाए जाने वाले पहले व्यक्ति थे। नेहरू के तहत, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, उस समय की भारत की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी ने 1936 में सामाजिक-आर्थिक नीतियों के लिए समाजवाद को एक विचारधारा के रूप में अपनाया। कट्टरपंथी समाजवादियों और कम्युनिस्टों ने बंगाल में किसानों के उभरे हुए सज्जनों के खिलाफ तेभागा आंदोलन को भी इंजीनियर बनाया। हालांकि, मुख्यधारा के भारतीय समाजवाद ने खुद को गांधीवाद के साथ जोड़ा और वर्ग युद्ध के बजाय शांतिपूर्ण संघर्ष अपनाया।

भारत में समाजवाद की एक अलग किस्म के सूत्रीकरण की कोशिश की गयी है। 

राममनोहर लोहिया, जय प्रकाश नारायण और नरेन्द्र देव के राजनीतिक चिंतन और व्यवहार से निकलने वाले प्रत्यय को 'गाँधीवादी समाजवाद' की संज्ञा दी जाती है।

भारत में समाजवाद : भारत में समाजवाद औपनिवेशिक ब्रिटिश राज के खिलाफ व्यापक भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक हिस्से के रूप में, 20 वीं शताब्दी के आरंभ में स्थापित एक राजनीतिक आंदोलन है। यह तेजी से लोकप्रियता में बढ़ गया क्योंकि यह भारत के किसानों और मजदूरों के कारणों को ज़मीनदारों, रियासतों और उतरा सज्जनों के खिलाफ प्रेरित करता था। समाजवाद ने स्वतंत्रता के बाद 1990 के दशक तक स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार की सिद्धांतिक आर्थिक और सामाजिक नीतियों को आकार दिया, जब भारत एक और बाजार आधारित अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ गया। हालांकि, इसका भारतीय राजनीति पर एक प्रभावशाली प्रभाव बना हुआ है, जिसमें बड़ी संख्या में राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दल लोकतांत्रिक समाजवाद का समर्थन करते हैं।

भारतवर्ष में आधुनिक काल के प्रथम प्रमुख समाजवादी महात्मा गांधी हैं, परंतु उनका समाजवाद एक विशेष प्रकार का है।

गांधीजी के विचारों पर हिंदू, जैन, ईसाई आदि धर्म और रस्किन, टाल्सटाय और थोरो जैसेदार्शनिकों का प्रभाव स्पष्ट है। वे औद्योगीकरण के विरोधी थे क्योंकि वे उसको आर्थिक समानता, शोषण, बेकारी, राजनीतिक तानाशाही आदि का कारण समझते थे। मोक्षप्राप्ति के इच्छुक महात्मा गांधी इंद्रियों और इच्छाओं पर विजय प्राप्त कर त्याग द्वारा एक प्रकार की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता और समानता स्थापित करना चाहते थे जो हो न सका। प्राचीन भारत के स्वतंत्र और स्वपर्याप्त ग्रामीण गणराज्य गांधी जी के आदर्श थे।

ध्येय की प्राप्ति के लिए गांधी जी नैतिक साधनों - सत्य, अंहिसा, सत्याग्रह - पर जोर देते हैं हिंसात्मक क्रांति पर नहीं। गाँधी जी प्रेम द्वारा शत्रु का हृदयपरिवर्तन करना चाहते थे, हिंसा और द्वेष द्वारा उसका विनाश नहीं। गांधीवाद धार्मिक अराजकतावाद है। इस समय विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण गांधीवाद की व्याख्या और उसका प्रचार कर रहे हैं। उन्होंने श्रम, भू, ग्राम, संपत्ति आदि के दान द्वारा अहिंसात्मक ढंग से समाजवादी व्यवस्था की स्थापना का प्रयत्न किया है।

भारतीय समाजवादी विचारधारा के अनुसार नि:स्वार्थ सेवा, त्याग और आध्यात्मिक प्रवृत्ति - इनमें शोषक और शोषित के लिए कोई स्थान नहीं। यदि किसी के पास कोई संपत्ति है तो वह समाज की धरोहर मात्र है, देखा जाये तो इसके अनुसार सभी लोग एक समान स्थिति में होने चाहिए। सबके लिए समानता। किन्तु इस स्थिति में जब कि सभी एक समान हैं कोई भी व्यक्ति किसी भी कार्य को करना ही नहीं चाहेगा और समाज में अराजकता फ़ैल जाएगी, अतः यह विचारधारा एक विचारधारा के रूप में ही ठीक हो सकती है।

अंत में राकेशधर द्विवेदी जी की लिखी हुई कविता जो कि समाजवाद पर आधारित है-

मैं समाजवाद हूं
पूंजीवाद की छाया के तले
आज मैं आबाद हूं
देखता नित दिन मैं
श्रमिक को पिसता हुआ
आम आदमी को कटता हुआ
मरता हुआ, घिसता हुआ
उनके बीच मैं लगाता हूं नारा
सर्वहारा जिंदाबाद है, सर्वहारा जिंदाबाद है
मेरी छाया के तले पूंजीपति कितने पले
लोहिया और नरेन्द्र देव की प्रतिमा पर माला पड़े
फिर भी आम आदमी आज अनाथ और बेरोजगार है
रोता, चीत्कारता, नंगा, भूखा और लाचार है
रह-रहकर पुकारता समाजवाद की जय हो
जिसके सहारे चलकर पूंजीवाद की विजय हो।


 By: Rishabh Pandey

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